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१७ नवंबर, १९७१
बड़ी अजीब बात है, चीजोंकी सारी दृष्टि बदल गयी है... । और मूली जा चुकी है।
इतनी पूरी तरह बदल चुकी है...
लेकिन दृष्टिके
इस परिवर्तनमें किस चीजका फर्क है? (काफी देरतक मुस्कराते हुए मौन) यह ऐसा है मानों वस्तुओंके बारेमें चेतना अब उसी स्थानपर नहीं है - पता नहीं कैसे कहा जाय, अतः वे बिलकुल भिन्न प्रतीत होती हैं ।
(मौन)
पता नहीं, कैसे समझाया जाय?... सामान्य मानव चेतनामें, जब उसमें अधिक-से-अधिक विस्तृत विचार होते हैं तब भी, वह चेतना केंद्रमें होती है और चीजें इस तरह होती हैं ( मकड़ीके जालकी तरह सभी ओरसे केंद्र- की ओर अभिमुख) । चीजोंका अस्तित्व होता है ( हम जो कुछ कहें वह उसे संकीर्ण कर देता है), वे एक केंद्रके साथ संबंध रखते? हुए अस्तित्व रखती हैं जब कि... ( माताजी बहुत-से बिखरे हुए केंद्रोंकी ओर संकेत करती हैं) । मेरा ख्याल है कि इसे अच्छी-से-अच्छी तरह यों अभिव्यक्त किया जा सकता है : सामान्य मानव चेतनामें ( मकड़ीके जालका वही संकेत) मनुष्य एक बिंदुपर रहता है ओर सभी चीजें चेतनाके इस बिंदुके साथ संबद्ध रहती हैं । अब, बिंदुका अस्तित्व नहीं रहा, अतः वस्तुएं अपने-आप- मे अस्तित्व रखती हैं ।
कहनेके लिये यह सबसे अधिक यथार्थ चीज है । यह वह नहीं है, पर... तो, मेरी चेतना वस्तुओंमें' है -- वह कोई ''ऐसी वस्तु'' नहीं है जो ग्रहण करती हो, यह उससे बहुत अच्छी है, पर मैं नहीं जानती उसे कैसे कहा जाय ।
यह उससे ज्यादा अच्छी है, क्योंकि यह केवल ''वस्तुओं' ' मे ही नहीं है, वह उस ''कुछ चीज' ' मे भी है जो वस्तुओंमें है जो... उन्हें गति देती है ।
मैं उसे शब्दोंमें कह सकती हूं । मै कह सकती हूं : वह अब अन्य सत्ताओंके बीच एक सत्ता नहीं है, वह.. ., मैं कह सकती हूं : ' 'वह सगी चीजोंमें भगवान् है । '' लेकिन मुझे वैसा नहीं अनुभव होता... ''जो चीजोंको गति देता है या जो चीजोंमें सचेतन है । ''
स्पष्ट है कि यह चेतनाका प्रश्न है, लेकिन उस चेतनाका नहीं जो साधारण मनुष्योंमें है । चेतनाका गुण बदल गया है ।
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